पूर्णता की चाहत रही अधूरी
लाजपत राय गर्ग
समर्पण
स्मृति शेष मामा श्री वज़ीर चन्द मंगला को
जो कॉलेज के समय में मेरी छुट-पुट रचनाओं के
प्रथम श्रोता रहे तथा जिनकी
प्रेरणा सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ने में
मेरी पथ-प्रदर्शक बनी।
मरणोपरान्त देहदान करने वाले हमारे परिवार के
प्रथम एवं अद्वितीय व्यक्तित्व के धनी
की स्मृति को शत् शत् नमन।
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यह उपन्यास - पूर्णता की चाहत रही अधूरी - पूर्णतः काल्पनिक घटनाओं एवं पात्रों को लेकर लिखा गया है। इसके सभी पात्र तथा घटनाएँ यथार्थ में सम्भावित होते हुए भी लेखक की कल्पना की उपज हैं। किसी भी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से साम्य महज़ संयोग ही माना जायेगा। किसी व्यक्ति, उसके धर्म व जाति विशेष की भावनाओं को ठेस पहुँचाने अथवा उनपर दोषारोपण करने का सवाल ही नहीं उठता। सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर लेखक के विचारों से पाठक असहमत हो सकते हैं। यह उनका मौलिक अधिकार है। इस कृति के सर्वाधिकार लेखक के पास सुरक्षित हैं।
पहला अध्याय
प्लस टू में अच्छा रैंक लेने के बावजूद नीलू के डॉक्टर बनने का सपना अभी अधर में लटक रहा था, क्योंकि पीएमटी के परिणाम में वह अपेक्षित स्तर तक नहीं पहुँच पायी थी। अब आशा टिकी थी तो प्रबंधन कमेटी के पास रिज़र्व पन्द्रह प्रतिशत कोटे में से अपने लिये सीट का प्रबंध करने पर। घर में उठते-बैठते बातचीत का मुख्य विषय यही रहता था। चाहे एडमिशन नीलू का होना था, उसके डॉक्टर बनने के सपने पर अभी प्रश्नचिन्ह क़ायम था, फिर भी उससे अधिक चिंतित रहती थीं मौसी और मीनाक्षी। लेकिन जवानी की दहलीज़ पर कदम रखती नीलू आज अभी तक बेफ़िक्री की नींद के आनन्द में मग्न थी। मीनाक्षी अपने नित्यकर्म के अनुसार नाश्ता आदि करने के पश्चात् जैसे ही ऑफिस जाने के लिये तैयार होने लगी कि मौसी ने कहा - ‘मीनू, आज छोटी के दाख़िले के लिये ज़रूर समय निकाल लेना।’
‘मौसी, तुझे क्या लगता है कि नीलू के दाख़िले की मुझे फ़िक्र नहीं है? कितने दिनों से कोशिश कर रही हूँ, लेकिन कोई साधन ही नहीं बन रहा ।’
‘तू इतनी बड़ी अफ़सर है, इतना छोटा-सा काम नहीं करवा सकती?’
‘मौसी, नीलू के नम्बर थोड़े-से कम आये हैं, इसलिये इसके मेडिकल में दाख़िले के लिये मोटी सिफ़ारिश की ज़रूरत है ।’
‘तेरा बड़े-बड़े अफ़सरों के साथ उठना-बैठना है। उनमें से कोई भी यह काम नहीं करवा सकता?’
‘मौसी, तू नहीं समझती। यह काम हर ऐरा-गैरा नहीं करवा सकता।........चल, तू इसकी फ़िक्र छोड़। नीलू जब उठे तो उसे कहना कि आज मैं आख़िरी तीर आज़मा के देखती हूँ। भगवान् भली करेंगे तो आज दाख़िला हो जाना चाहिए!’
इतना कहकर वह घर से बाहर आयी। अभी दस भी नहीं बजे थे, फिर भी धूप अपने पूरे तेवर दिखा रही थी, धूप में कुछ कदम चलना भी दुश्वार था। ड्राइवर सतपाल तैयार खड़ा था। मीनाक्षी झट से कार में बैठ गयी। उसके बैठते ही सतपाल ने इंजन स्टार्ट किया और कार सड़क पर दौड़ने लगी और साथ ही मीनाक्षी के मन-मस्तिष्क ने नीलू के दाख़िले को लेकर घोड़े दौड़ाने आरम्भ कर दिये। ऑफिस तक पहुँचते-पहुँचते वह अपने मन में निर्णय ले चुकी थी कि उसे अब क्या करना है।
ऑफिस में आकर ऐसी व्यस्त हुई कि तीन घंटे तक उसे कुछ भी सोचने की फ़ुर्सत नहीं मिली। लंच टाइम होने को था कि उसे याद आया कि नीलू के दाख़िले के लिये भी बात करनी है। उसने इंटरकॉम पर पी.ए. महेश को वी.सी. से बात करवाने के लिये कहा। महेश ने फ़ोन मिलाया तो लाइन पर वी.सी. का पी.ए. था। उसने पी.ए. को बताया कि मैडम वी.सी. साहब से बात करना चाहती हैं।पी.ए. ने वी.सी. को बताया कि एक्साइज डिपार्टमेंट की इंचार्ज मैडम आपसे बात करना चाहती हैं। वी.सी. से अनुमति लेकर पी.ए. ने महेश को फ़ोन मैडम को देने के लिये कहा। तदनुसार महेश ने बज़र देकर सूचित किया कि वी.सी. का पी.ए. लाइन पर है। मीनाक्षी ने पी.ए. की नमस्ते का उत्तर देने के साथ ही उसे फ़ोन वी.सी. साहब को देने को कहा। अगले ही क्षण उधर से आवाज़ आयी - ‘कहो मैडम, क्या बात है?’
‘गुड आफ्टरनून सर,.......यदि आप शाम को फ्री हों तो आपके दर्शन करना चाहती हूँ।’
‘कोई विशेष काम?’
‘मिलकर ही बताना चाहती हूँ सर।’
‘ठीक है, सातेक बजे आ जाना।’
मीनाक्षी ठीक सात बजे वी.सी. के सरकारी निवास जो कि विश्वविद्यालय परिसर में ही है, पर पहुँच गयी। गार्ड ने गेट खोलकर कार के पास आकर उसे सेल्यूट किया और कहा कि साहब ड्राइंगरूम में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। फिर भी मीनाक्षी ने आगे बढ़कर डोरबेल बजायी। दरवाज़ा बहादुर ने खोला और उसे ड्राइंगरूम में जाने का संकेत किया। ड्राइंगरूम में सामने वाली दीवार पर लगे स्वामी दयानन्द सरस्वती के आदमकद चित्र के नीचे सोफ़े पर विराजमान वी.सी. को उसने ‘गुड ईवनिंग सर’ कहा।
जवाब में वी.सी. महोदय ने बैठे-बैठे ही कहा - ‘आओ मैडम, बैठो।’
मीनाक्षी जब सोफ़े पर बैठ गयी तो वी.सी. ने कहा - ‘कहो मैडम, कैसे आना हुआ?’
‘सर, आपसे पहली बार मिल रही हूँ। एक रिक्वेस्ट करना चाहती हूँ, आपसे एक फ़ेवर लेनी है।’
‘मैडम, तुम पहली बार आयी हो। तुम्हारी रिक्वेस्ट बाद में सुनेंगे, पहले यह बताओ कि क्या लेना पसन्द करोगी? वैसे जिस विभाग की तुम इंचार्ज हो, उसके हिसाब से मैं मान कर चलता हूँ कि ड्रिंक तो अवश्य करती होंगी?’
मीनाक्षी सोच में पड़ गयी। ऐसा नहीं कि उसने कभी ड्रिंक नहीं किया था। लेकिन सामने बैठे व्यक्ति जिससे वह पहली बार मिल रही थी, की इस अनौपचारिक पहल ने उसे दुविधा में डाल दिया था। वी.सी. के व्यक्तित्व के बारे में उसने बहुत कुछ सुन रखा था। सोचने लगी कि क्या जवाब दूँ? कहीं मेरी ‘हाँ ‘ का ग़लत अर्थ तो नहीं निकाला जायेगा। साथ ही मन ने कहा कि यदि ‘ना’ कर दी तो जिस काम के लिये आयी हूँ, कहीं वह धरा-धराया ही न रह जाये। अभी वह इन विचारों के मंथन से गुज़र रही थी कि वी.सी. ने कहा - ‘क्या सोचने लग गयी मैडम? शाम का वक़्त है। एक-आध पैग लेने में कोई हर्ज़ नहीं होना चाहिये।’
और मीनाक्षी के जवाब का इंतज़ार किये बिना ही उसने आवाज़ लगायी - ‘बहादुर, पीने का सामान ले आ और नमकीन में अंडे की भुर्जी बना ले।’
मीनाक्षी चुप रही। उसे लगा कि इस आदमी के साथ पैग लेना व्यर्थ नहीं जायेगा। कहावत भी है कि जो काम किसी और साधन से नहीं बनते, शराब से आसानी में हो जाते हैं।
बहादुर ने सारा सामान सेन्ट्रल टेबल पर रखने के बाद पूछा - ‘साब जी, मैडम जी भी खाना खायेंगी क्या?’
वी.सी. के कुछ कहने से पहले ही मीनाक्षी ने ‘ना’ कर दी।
बहादुर के जाने के बाद वी.सी. ने शरारती अन्दाज़ में पूछा - ‘मैडम, साक़ी बनोगी या बन्दा ही जाम बनाये?’
‘सर, जो आज्ञा।’
‘नेकी और पूछ-पूछ; हो जाओ शुरू।’
मीनाक्षी ने बोतल उठायी। ढक्कन खोला। वी.सी. के लिये बड़ा और अपने लिये छोटा पैग बनाया। उसे ऐसा करते देखकर वी.सी. बोला - ‘अरे, यह क्या कर रही हो! अब तो नारी पुरुष से हर क्षेत्र में बराबरी ही नहीं कर रही, बल्कि आगे निकल चुकी है। तुम भी कोई साधारण महिला नहीं हो, अपने विभाग की ज़िला इंचार्ज हो। फिर यह भेदभाव क्यों?’
इतना कहते ही वी.सी. ने बोतल मीनाक्षी के हाथ से पकड़ी और उसका गिलास भी अपने गिलास के बराबर भर दिया। सोडा और आइस-क्यूब डालने के बाद अपना गिलास उठाकर मीनाक्षी की ओर ‘चीयर्स’ के लिये हाथ बढ़ाया। मीनाक्षी ने भी साथ देने में संकोच नहीं किया।
पहला पैग दोनों ने ही चुपचाप समाप्त किया। जब दूसरे पैग के लिये वी.सी. ने बोतल उठायी तो मीनाक्षी ने कहा - ‘सर, मेरे लिये तो रहने दें। पहले ही आपने मेरा कोटा पूरा कर दिया था।’
‘अरे मैडम, एक से कहाँ बात बनती है! सरूर आने के लिये कम-से-कम दो पैग तो चाहिएँ। सरूर ना आये तो शराब पी ना पी, एक बराबर है।’
मीनाक्षी अपनी ओर से ऐसा कोई अवसर नहीं देना चाहती थी कि वी.सी. को बुरा लगे। इसलिये मौन रही। उसके मौन को स्वीकृति मानकर वी.सी. ने पहले जितनी ही शराब गिलासों में उँड़ेली और मीनाक्षी का गिलास उसे पकड़ाते हुए उसकी अँगुलियों को छू लिया। कुछ अपनी गर्ज़ और कुछ वी.सी. के स्वभाव से परिचित होने के कारण उसने ऐसा ज़ाहिर किया जैसे कि कुछ भी अवांछित न हुआ हो।
एक घूँट भरने के उपरान्त वी.सी. ने कहा - ‘यस, नाउ स्पेल आउट योर रिक्वेस्ट।’
मीनाक्षी ने गिलास टेबल पर रखा। ए.सी. की हवा के झोंके से चेहरे पर मचल रही बालों की लट को कानों के पीछे की ओर सैट करके भूमिका बाँधते हुए उसने कहा - ‘सर, मेरी छोटी बहिन ने पीएमटी पास किया है, किन्तु नम्बर थोड़े-से कम आये हैं। अब आपकी दयादृष्टि की आवश्यकता है।’
‘जिसका तुम ज़िक्र कर रही हो, वह तुम्हारी रियल सिस्टर है या रिश्ते में....?’
‘सर, मैं अपनी बहिन के लिये ही रिक्वेस्ट करने आयी हूँ, किसी अन्य के लिये नहीं।’
‘तुम्हारी सिस्टर तुमसे इतनी छोटी है?’
‘हाँ सर। वह मुझसे पन्द्रह-सोलह साल छोटी है।’
वी. सी. की सहानुभूति अर्जित करने के लिये मीनाक्षी ने निजी जीवन के दु:ख़द अध्याय को खोलने में भी संकोच न करते हुए कहा - ‘सर, मेरे माता-पिता की तीन साल पहले एक रोड एक्सीडेंट में मृत्यु हो गयी थी। इसलिये भी मैं चाहती हूँ कि बहिन का करियर बन जाये। आपके लिये कोई बहुत बड़ी बात नहीं है।’
वी.सी. ने गिलास होंठों से लगाते हुए कहा - ‘ओह! आय एम सॉरी। वैरी सैड।’
काफ़ी देर तक उनके बीच चुप्पी पसरी रही। आख़िरी घूँट भरकर गिलास टेबल पर रखते हुए मीनाक्षी ने पूछा - ‘सर, तो मैं आपकी ‘हाँ’ समझूँ?’
‘मीनाक्षी, कल दिन में दो बजे अपनी सिस्टर को भेज देना। मैं उसका इंटरव्यू लूँगा।’
‘ठीक है सर। मैं उसे ले आऊँगी।’
‘तुम्हें आने की ज़रूरत नहीं। ड्राइवर के साथ भेज देना।’
अनहोनी की आशंका से मीनाक्षी अन्दर तक दहल गयी। फिर भी संयत रहते हुए कहा - ‘सर, वह बच्ची है। मैं उसे ले आऊँगी।’
वी. सी. ने गम्भीर मुद्रा बनाते हुए कहा - ‘चलो, तुम्हारी बात मान लेते हैं। उसे रहने देना। तुम कल दिन में दो-अढ़ाई बजे आ जाना। फिर देखते हैं कि क्या हो सकता है?’
मीनाक्षी ने राहत की साँस ली और ‘थैंक्यू सर, गुड नाइट’ कहकर बाहर आ गयी।
क्रमश..